जाना हे कही पे मुझे

जाना हे कही पे मुझे बस यही तेह करना है;
तोड़के सारे रिश्ते नाते वो मंजिल को अब तो पाना है ।
अब ना ही कोई दुबिधा ना मेरे दिमाग ना दिल में;
जो पाना था किसी एक दिन अब हे मेरे सामने ।

चाहत ना रहा कुछ ना रहा कुछ कैफियत देने को;
हुआ ना कुछ अब मेरे से अब चलना हे अलग सा दुनिया को ।
ना होगा वहाँ पे झुठा इन्सानियत का मुखौटा;
ना होगा वहां मेरा ये शर शर्म से झुखा ।

थक गया हूँ अब न उठ पाउँगा में अपने दम पर;
काबिलियत तो था मुझमे, पर चाहत ना रहा मुठी भर ।
आफत का पूड़िया लेके चला में, अब खत्म करना है इस नसीब को;
ए दुनिया, अब मत रोकना मुझे, मेरे अंतिम मंजिल तक पहुँचने से..

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